Why you should choose war?

घनी अशरफियों को रथ मे छुपाकर शांति के लिए प्रस्थान कर जाना कायरता है। आप कायरों कि भांति युद्धभुमि मे काव्य-पाठ कर सकते है किंतु यह लज्जाजनक कृत्य आप शत्रु के प्रहार तक ही कर सकते है। युद्ध से पूर्व उत्पन्न सन्नाटे कों आप शांति कह सकते है किंतु वो शांति नही है। युद्धभूमि मे कोलाहल से पूर्व योद्धा के मन मे मेघ के समान कोलाहल भ्रमण करता है।अतः शांति का एक ही मार्ग है, शांति के लिए युद्ध आवश्यक है। कायरों किं भांति आप पाप-पुण्य कि माला जप सपते है। वास्तव मे पाप-पुण्य कुछ भी नही है यह बस प्रारंभिक मनुष्य कि दंड व्यवस्था है जिसके आधार पर क्षक्तिहीन मनुष्य अपने पर होने वालों अत्याचारों को ईश्वर कि इच्छा मानकर स्वंय को उस अत्याचारी को दंडित करने से मुक्त कर लेता है। 

         क्रोश्यन्त्यो यस्य वै राष्ट्राद्ध्रियन्ते तरसा स्त्रियः ।
          क्रोशतां पतिपुत्राणां मृतोऽसौ न च जीवति ॥


किंतु यदि आप पाप-पुण्य मे विश्वास भी रखते है तो भी पापी का संहार ना करना महापाप है। महाभारत युद्ध मे जब अर्जुन ने यह महापाप करने का निर्णय लिया और ईश्वर को अपना दायित्व सौप दिया तब कृष्णः ने संसार मे ईश्वर के अस्तित्व को ही चुनौती दे दी व स्वंय को ही ईश्वर घोषित कर दिया। महाभारत का युद्ध मनुष्य और मनुष्य के मध्य नही था अपितु धर्म और अर्धंम के मध्य था। धर्म और अर्धम का व्याख्यान ज्ञानियों की बैठक मे किया जाता है युद्धभूमि मे नही। अपने स्वार्थ के लिए किया गया कार्य किसी ना किसी तर्क से अनुचित सिद्ध किया जा सकता है किंतु मानवता के हित के लिए, विश्व के कल्याण के लिए अर्धम के साथ किया गया अर्धम भी धर्म है। अर्धम का विनाश ही धर्म है। 

             अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च:


अहिंसा सर्वश्रेष्ठ व्यवहार है जिसे मात्र मानव ही एक ऐसा पशु है जो धारण कर सकता है। व्यक्ति को सामान्य रूप से अहिंसक ही होना चाहिए किंतु अहिंसा कायर होने के लिए कभी नही कहती है। अपनी कायरता को अहिंसा संबोधित कर देना संभवतः अत्यधिक मानसिक रूप सशक्त व्यक्ति द्वारा ही किया जा सकता है। अधार्मिक व्यक्ति विश्व मे उत्पात कर अशांति उत्पन्न करते है। आप इस अशांति को सुनकर अक्षि फेर सकते है, नाक बंद सकते है, मुँह चिढा सकते है, भाग सकते है, छुप सकते है किंतु आपकी नेत्रहीनता बिल्ली पर आपके तरस का कारण कभी नही बनेगी। यह अशांति रणहुंकार है। सन्नाटें को चीरतें को बिल्ली संपूर्ण बल के साथ आप पर प्रहार कर आपका वध करने को तत्पर है। अपने-अपने शस्त्र चुनने के लिए आप स्वंतत्र है। यह बिल्ली आपकी दयनीय स्थिति से आप पर दयावान कभी नही होगी अपितु आप जितने ही अशक्त होगे उतने ही अधिक आप पर प्रहार कि संभावनाएं होगी। अतः अन्य कोई विकल्प शेष नही है। युद्ध ही समाधान है, युद्ध ही विधी का विधान है। 

          आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
            नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।।


आपकों स्वंय से युद्ध करना होगा। अपनी हर समस्या, अपनी हर विफलता के लिए आप स्वंय जिम्मेदार है। आपकी विफलता का यह सन्नाटा आपकें भीतर मौजूद अधर्मी-अकर्मी से युद्ध की रणहुंकार है। शस्त्र उठाईए और स्वंय पर अभय होकर प्रहार कीजिए। युद्ध के पश्यात ही आपको शांति प्राप्त होगी। महाभारत गाथा आपकों बहुत कुछ शिक्षित करती है। प्रत्येक पात्र है, प्रत्येक पात्र के कर्म है चाहें वो अर्जुन हो, द्रोण हो, दुशासन हो, द्रोपदी हो, युधिष्ठिर हो, नकुल हो, कर्ण हो, दुर्योधन हो, एकलव्य हो, भीष्म हो या कृष्णः हो। ना ही कोईं सर्वगुण सपंन्न है और ना ही कोई सपूंर्ण अवगुणी। प्रत्येक के अपने-अपने युद्ध है। युद्ध प्रकरण आपकों सिखाता है कि "सब मोह-माया है" बोलकर आप युद्ध से भाग नही सकते है। युद्धभूमि मे युद्ध ही एकमात्र समाधान है अन्यथा उसके अतिरिक्त जो है वो कायरता है। युद्ध के पश्चात ही शांति कि स्थापना हो सकती है, युद्ध से पूर्व यह असंभव है। 

विश्व मे मात्र एक प्रतिशत् व्यक्ति से ऐसे जो असीम सफलता को प्राप्त करते है। उनमे कुछ विशेष नही होता है बस वो युद्धभूमि मे वज्र कि भांति अडिग रहते है। उनकी इच्छाशक्ति ही उनकी विजय का कारण बनती है। वो भी गिरते है, पराजित होते है किंतु पुनः उदय होते है। अनेकों बार मृत्तिका मे मिलते है, रणनीति परिवर्तित करते है, शस्त्र परिवर्तित करते है, रणक्षेत्र तक परिवर्तित कर देते किंतु पराजय को स्वीकार नही करते है। रणक्षेत्र परिवर्तन करने से आप सब के मन प्रश्न कौंध रहा है कि यह तो पराजय हुई, नही। कलयवान से युद्ध के दौरान नारायण को भी रण छोड, रणक्षेत्र परिवर्तित कर, युद्ध का स्थानांतरण कर स्वंय का निकास करना पडा था। फलतः व्यक्ति को परिस्थितियों अनुसार प्रत्यास्थ होकर युद्धभूमि मे स्थित होना चाहिए। 

महाभारत सच है, झूठ है यह तो विशेषज्ञों के शोध का विषय है। किंतु महाभारत युद्ध कि कथा हमे जीवन मे सफलता की प्रेरणा देती है। हमे कर्मप्रधान बनने के लिए आग्रह करती है। अर्जुन को रथ और सारथी कृष्णः तब ही मिला जब वो उसके योग्य बन गया था। यह मत पुछिए कि मेरे पास कितने साधन है अपितु यह कहिए कि मुझे संसाधनों कि क्या आवश्यकता, मै तो स्वंय ही पर्याप्त हूँ। अपने युद्ध के लिए स्वंय शस्त्र धारण कीजिए व युद्ध कीजिए, युद्ध कीजिए। विजय भवः 

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