प्रेम विवाह या सुसंगत विवाह...?...

विवाह को लेकर विभिन्न जनों के भिन्न मन है।कोई किसी के पक्ष मे बैठता है तो कोई किसी के विरोध मे।किंतु अत्यधिक जन भावनाओं से प्रभावित होकर अपना मत चुनते है।सत्य, तथ्य और तर्क के तराजों पर यही जन कमजोर पड जाते है।इन दोनो मे से क्या बेहतर है यह समझने से पहले हमे यह समझना होगा कि विवाह क्या है। विवाह कोई बंधन नही है अपितु विवाह एक संस्कार है जो दो व्यक्तियों को साथ मे लेकर आता है जो यह निर्णय लेते है कि हम दोनो एक-दुसरे को पूर्ण करेगें।हम सभी अधुरे होते है।हम सबको पुरा करने के लिए एक अन्य व्यक्ति कि आवश्यकता होती है और यह सत्य, तथ्य है।

विवाह क्या है यह स्पष्ट होने के पश्चात प्रेम व सुंसगत मे भिन्नताओं को चिन्हित करना सभंवता कुछ कठिन सा प्रतीत होता है। जब कोई दो व्यक्ति प्राकृतिक रूप से एक दुसरे के संपर्क मे आते है तो उनके बीच मे आकर्षण का होना बहुत ज्यादा स्वाभाविक है। ऐसा इसलिए होता है ताकि वो प्रजनन कर अपनी प्रजाति की निरंतरता को बनाए रख सके और यह प्रत्येक पशु के साथ होता है। मनुष्य कोई विशेष नही है। किंतु समस्या उत्पन्न यह होती है कि ३ प्रहर कि चलचित्रम् ने इसी आकर्षण को प्रेम बना दिया है। किंतु वास्तव मे यह प्रेम है ही नही। प्रेम एक बडा ही जटिल विषय है जिसे समझने के पागल होना जरूरी है, साथ मे यह आवश्यक है कवि होना; किंतु पागल कवि प्रेम को कभी समझ ही नही सकता है। प्रेम को समझने के लिए विवेक होना चाहिए; किंतु प्रेम को वही समझ सकता है जो विवेकहीन हो।उपलिखित पंक्तियों को जिसने समझ लिया उसने यह समझ लिया कि प्रेम को कैसे समझा जा सकता है।

विपरीत लिंग की तरफ आकर्षण होना किसी भी तर्क से गलत नही है।यह प्रकृति का नियम है। किंतु मनुष्य अत्यधिक ही विवेकवान प्राणी है जो समाज कि रचना करता है और उसमे स्वंय को अभिमन्यु बनाता है। यह जीवन अकेला जीना ठीक वैसा है जैसे गुप्त अंधेरे के किसी कोने मे तेल से भरे बिना बाती का अप्रज्वलित दीपक होना। अतः विवाह जैसा संस्कार हिंदू सभ्यता कि सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों मे से एक है। किंतु कुछ विवेकवानों इसको मात्र संभोग से जुडकर प्रजजन तक ही सीमित कर दिया है। संभोग जीवन का खंड है किंतु जीवन नही है। संभोग जीवन मे होना चाहिए है किंतु संभोग ही जीवन नही होना चाहिए। तथापि आज कि चिंताहीन अवसादग्रस्त चिंतित तथकथित युवापीढी ने रिश्तों को अल्पकालिक बना दिया है।

मनुष्य ने अपनी अत्यधिक समाजिकता के प्रदर्शन हेतु विवाह को सुसंगत कर दिया है। दो परिवार का जब मिलन होता है तो स्वाभाविक तौर पर तुलानात्मक रूप से अधिक स्थायी होता है क्योंकि जब किसी घर मे जब दो सदस्य लडते है तो उनके पक्ष नही बनते है। यह मेरी निजी राय है। किंतु समस्या उत्पन्न क्या होती है कि जिन दो व्यक्तियों का विवाह हुआ है वो दोनो एक दुसरे विवाह के पश्चात ही जान पाते है और यह जानना या ना जानना अप्रभावी है क्योंकि चक्रव्युह को सिर्फ महारथी ही भेद सकते है। हालांकि पहले जानना या ना जानना भी इतना प्रभावी नही है क्योंकि मनुष्य के कई चेहरे होते है। हर चेहरे पर नकाब होता है और हर नकाब पर चेहरा होता है।वक्त के साथ मनुष्य चेहरा बदलता, नकाब बदलता है और बदल देता व्यक्तित्व व्यक्तियों के साथ और अंतः बदल देता है व्यक्ति। अतः प्रेम विवाह करना भी इतना लाभदायक प्रतीत नही होता है।

उपलिखित विचार-विर्मश इस अत्यधिक सरल विषय को सुलझाने की उपेक्षा और अधिक उलझा रहा है। किसी व्यक्ति को पूर्ण रूप से कभी जाना ही नही जा सकता है। किंतु चेहरे व नकाब नेत्रों को बदलने मे असक्षम होते है।यदि नेत्रों कि गहराईयों मे उतकर किसी व्यक्ति कि आदत लग जाए तो जीवन अत्यधिक प्रेममय व्यतीत होगा। वो आदत ही प्रेम है। वो आदत का जरूरत बन जाना प्रेम है। वो जरूरत ही तो प्रेम है। ऐसा लगता है किंतु यह प्रेम नही है। प्रेम कभी भी पाना नही हो सकता है। प्रेम तो हमेशा सर्मिपत होना होता है। जब दो व्यक्ति बहुत लंबे समय तक साथ रहेगे तो उन्हें शनैः शनेः एक-दुसरे ही आदत लग ही जाएगी। अतः यह महत्वपूर्ण नही है कि दो व्यक्ति सुसंगत से या प्राकृतिक रूप से साथ आए यथेष्ट यह है की वो दोनो साथ मे है।

प्रेम विवाह या सुसंगत विवाह मे ज्यादा उत्तम क्या है यह जानने के लिए इन दोनो मे भिन्नता क्या जानना आवश्यक है। वास्तव मे दोनो मे कोई भिन्नता है ही नही।यदि इन दोनो मे कुछ भिन्नता है वो तो बस इतनी है कि दोनो का संबोधन अलग-अलग है और एक मे पूर्ण निर्णय दो व्यक्तयों के हाथ मे होते है और दुसरे मे दो परिवारों के। बस इसके अतिरिक्त इनमे कोई भिन्नता नही है। आपका प्रेम विवाह होता है या सुंसगत यह इतना महत्वपूर्ण नही है, बस विवाह होना चाहिए। विवाह होना महत्वपूर्ण है।

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