Why We are 100 years behind?

पुरूष प्रधान समाज ने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि स्त्री एक संपत्ति है। अतः जब कभी भी उसके झूठ से बाहरी पुरूष किसी स्त्री का अपहरण करने का प्रयास करता है तो यह एक युद्ध का कारण बन जाता है। उस बाहरी पुरूष को उस स्त्री को जीतना पडता है व जीत के उपहार के रूप मे वो स्त्री उस मेहमान पुरुष को भेंट कि जाती जिसका वो अपने अनुसार शोषण करने के लिए स्वंतत्र होता है। इस सब प्रक्रिया मे स्त्री का मौन ही उसको आर्दश स्त्री बनाता है अन्यथा वो चरित्रहीन घोषित कर दी जाती है। यह सब गंदे खेल के नियम पुरूषों द्वारा ही स्त्रियों पर थोपे गए है व स्त्रियां इसके प्रति विमुख ना हो, अतः इन्हें काल्पनिक ईश्वर द्वारा लिखित सिद्ध किया गया है। ईश्वर के भय मे स्त्रियों ने भी अब इन नियमों को ना सिर्फ स्वीकार किया है अपितु इनका प्रचार व सर्मथन भी किया है।धन्य है!

इस कुंठित मानसिकता को शिक्षा भी भेद पाने मे असक्षम है। हाल ही मे कर्नाटक मे घटित कुछ लडकियों द्वारा जाब के विरोध प्रदर्शन हमारी संपूर्ण शिक्षण व्यवस्था पर एक तमाचा है। यह तमाचा हम सब के मुँह पर है। एक शिक्षण संस्थान अपने आप स्वंतत्र होता है अपने यूनिफॉर्म कोड के लिए व किसी समुदाय-सामुहिक विषय के उद्धार के दायी नही होता है। आप कहाँ से आए, कब आए, क्यो आए यह कोई मायने नही रखता है। आप जहाँ हो वहाँ का कानून आप पर लागू होते है। आप जहाँ से भी आए, जब भी आए, जिस लिए भी आए, वापस जाकर उस जगह के कानूनों का निर्वाह करने के लिए स्वंतत्र है। आप अपने घर मे जो कुछ भी पहनते है इसका अर्थ यह बिल्कुल नही कि आप वो ही पहनकर विश्वविद्यालय आ जाए।

वैसे भी जाब कोई कपडा नही है जिसे चुना जाए। यह एक थोपा हुआ पुरूष प्रधानिक टूल है जिसके द्वारा स्त्रियों का शोषण होता है। यह महिलाओं को एक वस्तु बनाता है, व उस वस्तु के ऊपर लेबल लगाता है, "only for sexual purposes" उन लडकियों को यह भ्रम है कि जाब पहनना उनका स्वंय का निर्णय है किंतु यह सत्य नही है। सत्य यह है कि जाब उनपर थोपा गया है और इस हद तक थोपा गया है कि उनको वो ही अब सही लगता है। उदाहरण के लिए हमे बचपन से ही बाहरी आवरण को देखकर लिंग आंवटित कर दिए जाते है व बचपन से हमे रटाया जाता है कि हमारा लिंग यही है और अधिकतर यही मान भी लेते है। वह इस हद तक इसे मानते है यदि मजाक मे भी उनको किसी अन्य अतिरिक्त लिंग का बोल दिया जाता है तो वह उनके लिए अपशब्द हो जाता है। साडी सिर्फ स्त्री ही पहन सकती है पुरूष क्यों नही? स्त्रियों को ऐसा लगता है कि साडी पहनना उनका स्वंय का निर्णय है, किंतु यह साडी समाज द्वारा स्त्रियों के लिए आंवटित है।

कुछ बेतुके बडबोले बडे बडे शब्दों जैसे 'right to freedom' की व्याख्या मे इसको सही ठहराने का प्रयास करते है। सर्वप्रथम इन गधों को इतना भी ज्ञान नही है कि यह 'freedom' 'absolute' नही होता है। आज कोईं कुछ पहनने कि जिद कर रहा है कल कोईं कुछ उतारने कि जिद करेगा। परसों कोईं कुछ भी करेगा और कहेगा, "लोकतंत्र है भाई, मालूम नही क्या?" शिक्षा और शिक्षण दोनो का मजाक बनाकर रख दिया है।

समाज को यह स्वीकारना होगा कि परिवर्तन ही संसार का नियम है। प्राचीन रूढिवादी परंपराओं को तोडकर नए कल का निर्माण वर्तमान सभ्यता के भीतर सुरक्षित है। किसी भी तर्क कि स्थिति मे वह पुराने को जबरन स्वीकार करने कि स्थिति मे नही है। स्वंतत्रता अभी अधुरी है। अभी भी मनुष्य मानसिक गुलामी से पीडित है। बाईसवीं शताब्दी मे प्रवेश हेतु इन मानसिक बेडियों का पिघलाना अति आवश्यक है।

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